लेखनी कहानी -12-Mar-2024
सम्भाला था
वक्त की जुबान आज बन उफान तनी रही सख्त रख रवैया आज तुफान सनी रही खामोश निगाहो को खामोशी से सम्भाला था दारमदार हमने रख अपनी जुबां से सम्भाला था आजू वो निगाहे मेरी राहो को निहार रही थी किस्मत को छोड़ पर नियत उसे सवार रही थी।
दारमदार, अपनो रख अपनी जुबां से सम्भाला था।
खामोश निगाहों को खामोशी से सम्भाला था।
दरिया मेरा विचारों से यू खाली होकर अपनो की जुबां से जुबां करने चला गठिया मन में आज हावि होकर बुरी नजरों की मिहान बुखार दूर करने चला मौत की धमकी से क्या डरना, क्योंकि वह तो सदा की ही। दारमदार अपना रख, अपनी जुबान से सम्भाला था। खामोश निगाहो को खामोशी से इस तुफान में सम्भाला था।
मकसद मेरा उलझा रहा चन्द किताबी पन्नों पर
रस मेरा बिखरा रहा चन्द खेत के गन्नो पर
फिर भी दारमदार अपना, रख अपनी जबान से सम्भाला था।
खामोश निगाहों को खामोशी से इस तुफान में सम्भाला था
घटिया मेरी सोच नही थी बड़िया मेरी खोज रही थी . कर मेहनत में विपरीत हालात में सफलता लाने सोच रही थी इसी दारमदार में अपना रख अपनी जुबान से सम्भाला था। खामोश निगाहो को खामोशी से इस तुफान में सम्भाला था।